कविता संग्रह >> नील कुसुम नील कुसुमरामधारी सिंह दिनकर
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प्रस्तुत काव्य संग्रह ‘नील कुसुम’ में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की सौन्दर्यान्वेसी वृत्ति काव्यमयी हो जाती है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत काव्य संग्रह ‘नील कुसुम’ में राष्ट्रकवि
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की सौन्दर्यान्वेसी वृत्ति
काव्यमयी हो जाती है पर यह अंधेरे में ध्येय सौंदर्य का अन्वेषण नहीं,
उजाले में ज्ञेय सौंदर्य का आराधन है। कवि के स्वर का ओज नये वेग से नये
शिखर तक पहुँच जाता है। वह काव्यात्क प्रयोगशीलता के प्रति आस्थावान है।
स्वयं प्रयोगशील कवियों को जयमाल पहनाने और उनकी राह पर फूल बिछाने की
आकांक्षा उसे विव्हल कर देती है। नवीनतम काव्यधारा से संबंध स्थापित करने
की कवि की इच्छा स्पष्ट हो जाती है।
प्रस्तुत पुस्तक में पाठक कवि के भाषा प्रवाह, ओज अनुभूति की तीव्रता और सच्ची संवेदना का अनुभव करेंगे।
प्रस्तुत पुस्तक में पाठक कवि के भाषा प्रवाह, ओज अनुभूति की तीव्रता और सच्ची संवेदना का अनुभव करेंगे।
नील कुसुम
‘‘है यहाँ तिमिर, आगे भी ऐसा ही तम है,
तुम नील कुसुम के लिए कहाँ तक जाओगे ?
जो गया, आज तक नहीं कभी वह लौट सका,
नादान मर्द ! क्यों अपनी जान गँवाओगे ?
प्रेमिका ! अरे, उन शोख़ बुतों का क्या कहना !
वे तो यों ही उन्माद जगाया करती हैं;
पुतली से लेतीं बाँध प्राण की डोर प्रथम,
पीछे चुम्बन पर क़ैद लगया करती हैं।
इनमें से किसने कहा, चाँद से कम लूँगी ?
पर, चाँद तोड़ कर कौन मही पर लाया है ?
किसके मन की कल्पना गोद में बैठ सकी ?
किसकी जहाज़ फिर देश लौट कर आया है ?’’
ओ नीतिकार ! तुम झूठ नहीं कहते होगे,
बेकार मगर, पागलों को ज्ञान सिखाना है;
मरने का होगा ख़ौफ़, मौत की छाती में
जिसको अपनी ज़िन्दगी ढूँढ़ने जाना है ?
औ’ सुना कहाँ तुमने कि ज़िन्दगी कहते हैं,
सपनों ने देखा जिसे, उसे पा जाने को ?
इच्छाओं की मूर्तियाँ घूमतीं जो मन में,
उनको उतार मिट्टी पर गले लगाने को ?
ज़िन्दगी, आह ! वह एक झलक रंगीनी की,
नंगी उँगली जिसको न कभी छू पाती है,
हम जभी हाँफते हुए चोटियों पर चढ़ते,
वह खोल पंख चोटियाँ छोड़ उड़ जाती है।
रंगीनी की वह एक झलक, जिसके पीछे
है मच हुई आपा-आपी मस्तानों में,
वह एक दीप जिसके पीछे है डूब रहीं
दीवानों की किश्तियाँ कठिन तूफ़ानों में।
डूबती हुई किश्तियाँ ! और यह किलकारी !
ओ नीतिकार ! क्या मौत इसी को कहते हैं ?
है यही ख़ौफ़, जिससे डरकर जीनेवाले
पानी से अपना पाँव समेटे रहते हैं ?
ज़िन्दगी गोद में उठा-उठा हलराती है
आशाओं की भीषिका झेलनेवालों को;
औ; बड़े शौक़ से मौत पिलाती है जीवन
अपनी छाती से लिपट खेलनेवालों को।
तुम लाशें गिनते रहे खोजनेवालों की,
लेकिन, उनकी असलियत नहीं पहचान सके;
मुरदों में केवल यही ज़िन्दगीवाले थे
जो फूल उतारे बिना लौट कर आ न सके।
हो जहाँ कहीं भी नील कुसुम की फुलवारी,
मैं एक फूल तो किसी तरह ले जाऊँगा,
जूडे में जब तक भेंट नहीं यह बाँध सकूँ,
किस तरह प्राण की मणि को गले लगाऊँगा ?
तुम नील कुसुम के लिए कहाँ तक जाओगे ?
जो गया, आज तक नहीं कभी वह लौट सका,
नादान मर्द ! क्यों अपनी जान गँवाओगे ?
प्रेमिका ! अरे, उन शोख़ बुतों का क्या कहना !
वे तो यों ही उन्माद जगाया करती हैं;
पुतली से लेतीं बाँध प्राण की डोर प्रथम,
पीछे चुम्बन पर क़ैद लगया करती हैं।
इनमें से किसने कहा, चाँद से कम लूँगी ?
पर, चाँद तोड़ कर कौन मही पर लाया है ?
किसके मन की कल्पना गोद में बैठ सकी ?
किसकी जहाज़ फिर देश लौट कर आया है ?’’
ओ नीतिकार ! तुम झूठ नहीं कहते होगे,
बेकार मगर, पागलों को ज्ञान सिखाना है;
मरने का होगा ख़ौफ़, मौत की छाती में
जिसको अपनी ज़िन्दगी ढूँढ़ने जाना है ?
औ’ सुना कहाँ तुमने कि ज़िन्दगी कहते हैं,
सपनों ने देखा जिसे, उसे पा जाने को ?
इच्छाओं की मूर्तियाँ घूमतीं जो मन में,
उनको उतार मिट्टी पर गले लगाने को ?
ज़िन्दगी, आह ! वह एक झलक रंगीनी की,
नंगी उँगली जिसको न कभी छू पाती है,
हम जभी हाँफते हुए चोटियों पर चढ़ते,
वह खोल पंख चोटियाँ छोड़ उड़ जाती है।
रंगीनी की वह एक झलक, जिसके पीछे
है मच हुई आपा-आपी मस्तानों में,
वह एक दीप जिसके पीछे है डूब रहीं
दीवानों की किश्तियाँ कठिन तूफ़ानों में।
डूबती हुई किश्तियाँ ! और यह किलकारी !
ओ नीतिकार ! क्या मौत इसी को कहते हैं ?
है यही ख़ौफ़, जिससे डरकर जीनेवाले
पानी से अपना पाँव समेटे रहते हैं ?
ज़िन्दगी गोद में उठा-उठा हलराती है
आशाओं की भीषिका झेलनेवालों को;
औ; बड़े शौक़ से मौत पिलाती है जीवन
अपनी छाती से लिपट खेलनेवालों को।
तुम लाशें गिनते रहे खोजनेवालों की,
लेकिन, उनकी असलियत नहीं पहचान सके;
मुरदों में केवल यही ज़िन्दगीवाले थे
जो फूल उतारे बिना लौट कर आ न सके।
हो जहाँ कहीं भी नील कुसुम की फुलवारी,
मैं एक फूल तो किसी तरह ले जाऊँगा,
जूडे में जब तक भेंट नहीं यह बाँध सकूँ,
किस तरह प्राण की मणि को गले लगाऊँगा ?
चाँद और कवि
रात यों कहने लगा मुझ से गगन का चाँद,
‘‘आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है !
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न ? है वह बुलबुला जल का,
आज बनता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, तो भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो !
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।’’
मैं न बोला, किन्तु मेरी रागिनी बोली,
‘‘चाँद ! फिर से देख मुझको जानता है तू ?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं ? है यही पानी ?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू ?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ;
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह, दीवार फ़ौलादी उठाती हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है;
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जलाकर ख़बर कर दे,
‘‘रोज़ ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं ये;
रोकिये, जैसे बने, इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं ये।’’
‘‘आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है !
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न ? है वह बुलबुला जल का,
आज बनता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, तो भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो !
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।’’
मैं न बोला, किन्तु मेरी रागिनी बोली,
‘‘चाँद ! फिर से देख मुझको जानता है तू ?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं ? है यही पानी ?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू ?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ;
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह, दीवार फ़ौलादी उठाती हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है;
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जलाकर ख़बर कर दे,
‘‘रोज़ ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं ये;
रोकिये, जैसे बने, इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं ये।’’
दर्पण
जा रहीं देवता से मिलने ?
तो इतनी कृपा किये जाओ।
अपनी फूलों की डाली में
दर्पण यह एक लिये जाओ।
आरती, फूल से प्रसन्न
जैसे हों, पहले कर लेना;
जब हाल धरित्री का पूछें,
सम्मुख दर्पण यह धर देना।
बिम्बित है इसमें पुरुष पुरातन
के मानस का घोर भँवर;
है नाच रही पृथ्वी इसमें,
है नाच रहा इसमें अम्बर।
यह स्वयं दिखायेगा उनको
छाया मिट्टी की चाहों की,
अम्बर की घोर विकलता की,
धरती के आकुल दाहों की।
ढहती मीनारों की छाया,
गिरती दीवारों की छाया,
बेमौत हवा के झोंके में
मरती झंकारों की छाया।
तो इतनी कृपा किये जाओ।
अपनी फूलों की डाली में
दर्पण यह एक लिये जाओ।
आरती, फूल से प्रसन्न
जैसे हों, पहले कर लेना;
जब हाल धरित्री का पूछें,
सम्मुख दर्पण यह धर देना।
बिम्बित है इसमें पुरुष पुरातन
के मानस का घोर भँवर;
है नाच रही पृथ्वी इसमें,
है नाच रहा इसमें अम्बर।
यह स्वयं दिखायेगा उनको
छाया मिट्टी की चाहों की,
अम्बर की घोर विकलता की,
धरती के आकुल दाहों की।
ढहती मीनारों की छाया,
गिरती दीवारों की छाया,
बेमौत हवा के झोंके में
मरती झंकारों की छाया।
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